उम्मीदों के विपरीत निजी बीएड कॉलेजों में बड़ी संख्या में सीटें खाली रहने से एक साथ कई प्रश्न उठ रहे हैं। क्या मान्यता के मापदंड आवश्यकता से अधिक उदार हो गए? क्या छात्रों के अनुपात में निजी कॉलेजों पर संख्या संबंधी कोई बंदिश नहीं? कुकुरमुत्ते की तरह खुले कॉलेज क्या सरकार की शिक्षा नीति पर उंगली नहीं उठा रहे? विश्वविद्यालय से संबद्धता पर कोई स्पष्ट नीति लागू है अथवा नहीं? बेरोजगारों की फौज के समायोजन के लिए कौन से विशेष अतिरिक्त प्रयास किए गए हैं? क्या शिक्षा क्षेत्र में रोजगार के अवसर नजर आने बंद हो गए जिसके कारण छात्रों व अभिभावकों का दृष्टिकोण बदल गया? हालत यह है कि 45 हजार वार्षिक शुल्क लेने वाले निजी कॉलेज 30 हजार तक में दाखिला देने को तैयार हो गए हैं। जो शिक्षण महाविद्यालय अन्य राज्यों के विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं उनमें पात्रता भी 45 से घट कर सिर्फ उत्तीर्ण प्रतिशत पर आ टिकी है। प्रश्न यह भी है कि इन कॉलेजों से मिलने वाली डिग्री क्या हरियाणा के विश्वविद्यालयों के समकक्ष मानी जाएगी? राज्य में शिक्षकों के 23 हजार पद भरे जाने की मंत्री की घोषणा परोक्ष रूप से निजी कॉलेजों के अनुकूल ही मानी जा रही है पर इसके बावजूद छात्रों का रुझान इनकी ओर नहीं बढ़
रहा। अब मानना ही पड़ेगा कि जिस प्रयोजन से धड़ाधड़ मान्यता दी गई, उसके लक्ष्यहीन और दिशाहीन साबित होने की आशंका पैदा हो गई है। अब खाली सीटों को भरने के लिए चौथी एवं पांचवीं काउंसलिंग कराई जाएगी। प्रदेश की एसोसिएशन ऑफ एजुकेशनल कॉलेज का यह तर्क समझ से परे है कि विद्यार्थियों को पूरी सूचना नहीं मिल पाई या अक्टूबर माह में अत्यधिक अवकाश के कारण काउंसलिंग से सीटें नहीं भरी जा सकीं। निजी शिक्षण महाविद्यालयों की संख्या बढ़ने के साथ प्रचार युद्ध भी शुरू हो चुका है। यही स्थिति निजी तकनीकी व्यावसायिक संस्थानों की भी है। दोनों में एक समानता है कि खाली सीटों के मामले में जो स्थिति निजी शिक्षण महाविद्यालयों की है, वही इंजीनियरिंग कॉलेजों की भी है। प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह अपने स्तर पर तार्किक, व्यावहारिक व दूरगामी नीति बनाकर केंद्र एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समक्ष मजबूत पैरवी करे ताकि कंक्रीट के जंगल में शिक्षा स्तर व साक्षरता दर का वास्तविक लक्ष्य भटक न जाए। निजी कॉलेजों की अनावश्यक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मान्यता एवं संबद्धता के मापदंड कुछ सख्त किए जाने की आवश्यकता है।
रहा। अब मानना ही पड़ेगा कि जिस प्रयोजन से धड़ाधड़ मान्यता दी गई, उसके लक्ष्यहीन और दिशाहीन साबित होने की आशंका पैदा हो गई है। अब खाली सीटों को भरने के लिए चौथी एवं पांचवीं काउंसलिंग कराई जाएगी। प्रदेश की एसोसिएशन ऑफ एजुकेशनल कॉलेज का यह तर्क समझ से परे है कि विद्यार्थियों को पूरी सूचना नहीं मिल पाई या अक्टूबर माह में अत्यधिक अवकाश के कारण काउंसलिंग से सीटें नहीं भरी जा सकीं। निजी शिक्षण महाविद्यालयों की संख्या बढ़ने के साथ प्रचार युद्ध भी शुरू हो चुका है। यही स्थिति निजी तकनीकी व्यावसायिक संस्थानों की भी है। दोनों में एक समानता है कि खाली सीटों के मामले में जो स्थिति निजी शिक्षण महाविद्यालयों की है, वही इंजीनियरिंग कॉलेजों की भी है। प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह अपने स्तर पर तार्किक, व्यावहारिक व दूरगामी नीति बनाकर केंद्र एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समक्ष मजबूत पैरवी करे ताकि कंक्रीट के जंगल में शिक्षा स्तर व साक्षरता दर का वास्तविक लक्ष्य भटक न जाए। निजी कॉलेजों की अनावश्यक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मान्यता एवं संबद्धता के मापदंड कुछ सख्त किए जाने की आवश्यकता है।
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